अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ( Ahamad Faraz Shayari )

         


    

    अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं


    अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

    फराज़ अब जरा लहजा बदल के देखते हैं


    जुदाईयां तो मुकद्दर हैं फिर भी जाने सफर

    कुछ और दूर जरा साथ चल के देखते हैं


    राहे वफ़ा  में  हरीफे  खिराम  कोई तो हो

    सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं


    तु सामने है तो फिर क्युं यकीं नहीं आता

    ये बार बार जो आंखों को मल के देखते हैं


    ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में

    जो लालचों से तुझे, मुझको जल के देखते हैं


    ये कुर्ब क्या है कि यक्जां हुए ना दूर रहे

    हजार एक ही कालिब में ढल के देखते हैं


    ना तुझको मात हुई है ना मुझको मात हुई

    सो अबकी दोनों ही चालें बदल के देखते हैं


    ये कौन हैं सरे साहिल कि डूबने वाले

    समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं


    अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए

    हम अपनी आग में हर रोज जल के देखते हैं


    बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी  खैर खबर

    चलो फ़राज़ कूए यार चल के देखते हैं

                                        ( अहमद फ़राज़ )



लहजा :- बात करने के अंदाज़,बात करने का तरीका

जाने सफर :- यहां पर मतलब महबूब से है या दोस्त

राहे वफ़ा :- वफ़ा के राह

हारीफे खिराम :- चलने में मुकाबिल,चलने में मुकाबला

राहे वफ़ा में हरीफे खिराम:- वफ़ा के रास्ते पर चलने में मुकाबला करने वाला 

कुर्ब :- नजदीकियां,नजदीकी, इकट्ठा 

यक्जां:- करीब, समीप

कालिब :- ढांचा

मात :- हार, पराजय

सरे साहिल :- समंदर का किनारा,किनारा

तहों से :- गहराइयों से

कुंदन :- सोना, प्योर सोना

कूए यार :- महबूब की गली



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